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       लघुकथा           हारना नहीं है      मानसी स्ट्रेचर पर पड़ीं थर- थर कांप रहीं थीं। पचास वर्ष की आयु में एकाएक उन्हें बड़ा झटका कैंसर के रूप में लगा था। थोड़ी देर में उन्हे आॅपरेशन के लिए थियेटर में लिया जाने वाला था। निकटस्थ कंपाउंडर से उनने रोते हुए पूछा- “भैया, मैं बच तो जाऊंगी ना ?” कंपाउंडर उनकी हालत देख कर बोला- “ठहरिये मैं आपको किसी से मिलाता हूं।“ कुछ पलों में वह एक सुंदर कमउम्र महिला चिकित्सक के साथ उपस्थित हुआ। मानसी अपनी प्रिय छात्रा रही, नेहा को पहिचान गईं।       डाॅक्टर नेहा ने सस्नेह उनका हाथ अपने हाथ में लिया व दूसरे हाथ से अपना विग हटा दिया। मानसी उसका केशविहीन सिर देख स्तब्ध रह गई। “मैं ब्रेस्ट कैंसर की अंतिम स्टेज में हूं, तो क्या ?  लड़ना नहीं छोड़ूंगी अंतिम पल तक। घबराइये नहीं मैडम मैं आपके आॅपरेशन के दौरान आपके साथ रहूंगी निश्चेतना ( बेहोशी) चिकित्सक के रूप में।“       मानसी का भय दूर हो चुका था।                                   डाॅ . महिमा श्रीवास्तव                                                                   Show quoted text
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  कविता    क्यूँ   फागुन  में उदास रहूँ     सावन आया ,  मन सूखा रह गया   जाड़े आये,   तपता रहा मन बावरा। बसंत भी  ना खिला पाया फूल दिल के ओ फागुन   , बेरंग ना छोड़ जाना इस बार। लाख निराशा के घेरे रहे चारों ओर मैंने तो  आशा को गाना ही सीखा है। रूखे लोगों की  भीड़ में सरस सरल रहूँ ओ  फागुन  तू पलाश मन वन उगाना। मेरे गीत  मौसम की मार से  भ्रमित हों ना। मन में  फाग की गूंज बनी रहे आजीवन ,   जो बिसरायें  उनको भी नेह का गुलाल भेजूं मैं  क्यूँ  फागुन  में उदास  रहूँ ?                डाॅ.महिमा श्रीवास्तव

स्मृतियां

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     महकती स्मृतियां             उन दिनों मैं डाॅक्टर बन नौकरी के पदस्थापन की प्रतीक्षा में थी। कुछ दिनों में, एक सुदूर ग्रामीण इलाके में पदस्थापन का समाचार मिला।         इसके पहिले कभी किसी गांव के दर्शन करने का सुयोग ना बना था। गांव का नाम भी अजीब था, 'सांडेराव'।         एक बैग में आवश्यक सामान डाल मैं गंतव्य के लिए रवाना हुई। बस से उतरी तो पाया कि नाम को सार्थक करते दो- चार खतरनाक सांड सींग भिड़ा लड़ने में व्यस्त थे। खैर, उनसे किनारा कर मैं रास्ता पूछते- पूछते अपने अस्पताल जा पहुंची।         पास के ही एक छोटे से सरकारी आवास में, मेरे रहने की व्यवस्था हो गई। दो दिन बाद, आधी रात को मेरे क्वाटर का दरवाजा खड़खड़ाया गया।     "डाॅ साहिबा, घर चलिए, डिलिवरी करानी है।" एक बड़ी- बड़ी मूंछों वाला लट्ठ पहलवान निवेदन कर रहा था।      मैंने गर्भवती को अस्पताल लाने के लिए कहा लेकिन उनने असमर्थता जताई।  मरती क्या ना करती, हो गई उनके द्वारा लाये गये ट्रेक्टर में सवार। मेरे लिए यह भी नवीन अनुभव था। चारों ओर स्निग्ध शीतल चांदनी का साम्राज्य था।  गांव की शांत , प्रदूषण रहित,गलियों में